दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।
सफ़ासिफ़हा-ए-दहर <ref>धरती की सतह</ref> से बातिल<ref>असत्य, शून्य । ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है । अनिस्लमी । </ref> को मिटाया हमने ।
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमने
उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं ।
हिज़ इजज़<ref>कमज़ोरी</ref> वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार <ref>अभिमानी, शब्दार्थ - घमंड के नशे में मस्त</ref> भी हैं ।
इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल<ref>नादान </ref> भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।