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14:50, 10 जून 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
दूर गए मधुवन रंगराते,
तरू-छाया-फल से ललचाते,
भृंग-विहंगम उड़ते-गाते,
:::प्यारे, प्यारे।
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
छूट गई नदी की धारा,
जो चलती थी काट कगारा,
जो बहती थी फाँद किनारा,
मत पछता रे।
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
दूर गए गिरिवर गवींले,
धरती जकड़े, अम्बर कीले,
बीच बहाते निर्झर नीले,
:::फेन पुहारे।
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
पार हुए मरूतल के टीले,
सारे अंजर-पंजर ढीले,
बैठ न थककर कुंज-करीले,
:::धूल-धुआँरे!
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
चलते-चलते अंग पिराते,
मन गिर जाता पाँव उठाते,
अब तो केवल उम्र घटाते
:::साँझ-सकारे।
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
क्या फिर पट-परिवर्तन होगा?
क्या फिर तन कंचन होगा?
क्या फिर अमरों-सा मन होगा?
आस लगा रे।
:::चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
::नया ही आसमान!
:::चल बंजारे-
जब तक तेरी साँस न थमती, थमे न तेरा
::क़दम, न तेरा कंठ-गान!
:::चल बंजारे-