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02:19, 29 जून 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=द्विज
}}{{KKAnthologyBasant}}
{{KKPageNavigation
|पीछे=चँहकि चकोर उठे, सोर करि भौंर उठे / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=सबै फूल फूले, फबे चारु सोहैं / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 2
}}
<poem>
'''मनहरन घनाक्षरी'''
हौंन लागे सोर चहुँ ओर प्रति कुंजन मैं, त्यौंहीं पुंज-पुंजन पराग नभ छाइगौ ।
फूल-फल साजत कौं आयसु बिपिन माँहिं, सीतल-सुगंध मंद-पौंन पहुँचाइ गौ ॥
’द्विजदेव’ भूले-भूले फिरत मलिंदन की, सुषमा बिलोकि हिएं सुख सरसाइ गौ ।
आए हुते आगे तैं हरौलन के गोल इत, आवत हमारे उत ’ऋतुपति’ आइ गौ ॥१६॥
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