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|पीछे=कहूँ-कहूँ बनीं-ठनीं, लसैं सु बापिका घनी / शृंगार-लतिका / द्विज
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|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 3
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<poem>
नागर से हैं खरे तरु कोऊ, लिएँ कर-पल्लव मैं फल-फूलन ।
पाँवड़े साजि रहे हैं कोऊ, कोऊ बीथिन बीच पराग-दुकूलन ॥
फूल झरैं ’द्विजदेव’ कोऊ, पुर-कानन माँहिं कलिंदजा-कूलन ।
आगम मैं ऋतुराज के आज, सबै बिधि खोए सबै निज सूलन ॥२६॥
</poem>
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