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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=पाँखुरी लै साजी सेज सेवती की बेलिन / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=मंद दुचंद भए बुध-बैनहिं / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 3
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<poem>
'''मनहरन घनाक्षरी'''
''(वसंत की अनिवर्चनीय शोभा)''
औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले, औरैं भाँति सबद पपीहन के बै गए ।
औरैं भाँति पल्लव लिए हैं बृंद-बृंद तरु, औरैं छबि-पुंज कुंज-कुंजन उनै गए ॥
औरैं भाँति सीतल, सुगंध, मंद डोलै पौंन, ’द्विजदेव’ देखत न ऐसैं पल द्वै गए ।
औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग, औरैं बन, औरैं मन, ह्वै गए ॥३०॥
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