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'''कलाधर घनाक्षरी'''
''(भारती विनय-वर्णन)''

जैसी कछु कीन्ही द्विज-देव की बिनै के बस, कीन्ही अब सोई ’द्विजदेव’ चित-चाँहे तैं ।
मोहि तौ भरोसौ नाहिं आपनी कुबुद्धि लखि, निबिहै हमारी अब तेरेई निबाहे तैं ।
कीन्हैं कंठ भूषन बिदूषन पैं दीन्हैं कर, पग-पग पूरैं धुनि अमित उँमाहे तैं ॥
तजि कमलासनै, जु आई हौं हुलासनै, तौ चित-कमलासनै न भूषौ देबि काहे तैं ॥५४॥
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