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रोटी कब तक पेट बाँचती / कविता वाचक्नवी
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17:05, 6 जुलाई 2011
वर्तनी सुधार
पुस्तक लगे हथौड़ों-सी
उलझन के तख़्तों पर जैसे
पढ़े
पहाडे़
पहाड़े
- कील ठुँकें,
दरवाजे बड़-बड़ करते हैं
सीढ़ी धड़-धड़ बजती है
धरती अंबर घूमेगी
दुविधाओं के हाथों में बल नहीं बचा
सुविधाएँ मनुहार-
मनौवल
मनौवत
भिजवाएँ।
रोटी कब तक पेट बाँचती?
</poem>
Kvachaknavee
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