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रचनाकारः [[{{KKRachna|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]}}
[[Category:लम्बी कविता]]
::*[1]<br>भारत के नभ के प्रभापूर्य<br>शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य<br>अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;<br>उर के आसन पर शिरस्त्राण<br>शासन करते हैं मुसलमान;<br>है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।<br><br>::[2]<br>शत-शत शब्दों का सांध्य काल<br>यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल<br>छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;<br>आया पहले पंजाब प्रान्त,<br>कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,<br>क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।<br><br>::[3]<br>मोगल-दल बल के जलद-यान,<br>दर्पित-पद उन्मद पठान<br>बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,<br>छाया ऊपर घन-अन्धकार--<br>टूटता वज्र यह दुर्निवार,<br>नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।<br><br>::[4]<br>रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड<br>आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;<br>निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,<br>निःशेष सुरभि, कुरबक-समान<br>संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,<br>बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।<br><br>::[5]<br>वीरों का गढ़, वह कालिंजर,<br>सिंहों के लिए आज पिंजर<br>नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते<br>पीकर ज्यों प्राणों का आसव<br>देखा असुरों ने दैहिक दव,<br>बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।<br><br>::[6]<br>लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,<br>हो शायित देश की पृथ्वी पर,<br>अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण<br>भारत के उर के राजपूत,<br>उड़ गये आज वे देवदूत,<br>जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।<br><br>::[7]<br>यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण<br>सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण<br>इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद<br>संचित जीवन की क्षिप्रधार,<br>इसलाम - सागराभिमुख पार,<br>बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।<br><br>::[8]<br>अब धौत धरा खिल गया गगन,<br>उर-उर को मधुर तापप्रशमन<br>बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।<br>झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण<br>पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन<br>ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन<br><br>::[9]<br>भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल<br>फैला-यह केवल-कल्प काल--<br>कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता<br>प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,<br>लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द<br>होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।<br><br>::[10]<br>सोचता कहाँ रे, किधर कूल<br>कहता तरंग का प्रमुद फूल<br>यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता<br>छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,<br>वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल<br>निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।<br><br>::[11]<br>पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर<br>यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,<br>वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;<br>यह एक उन्ही में राजापुर,<br>है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,<br>ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।<br><br> ::[12]<br>युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन<br>समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन<br>जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;<br>आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,<br>अपने प्रकाश में निःसंशय<br>प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;<br><br> ::[13]<br>नीली उस यमुना के तट पर<br>राजापुर का नागरिक मुखर<br>क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;<br>प्रियजन को जीवन चारु, चपल<br>जल की शोभा का-सा उत्पल,<br>सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।<br><br> ::[14]<br>एक दिन सखागण संग, पास,<br>चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,<br>देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;<br>वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर<br>कुछ खुलती आभा में रँगकर,<br>वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।<br><br> ::[15]<br>केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;<br>परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-<br>ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,<br>हो मध्य तरंगाकुल सागर,<br>निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;<br>जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।<br><br> ::[16]<br>तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण<br>जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,<br>जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;<br>भर लेने को उर में, अथाह,<br>बाहों में फैलाया उछाह;<br>गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।<br><br> ::[17]<br>कहता प्रति जड़ / भाग १ / सूर्यकांत त्रिपाठी "जंगम-जीवन!<br>भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?<br>यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;<br>तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,<br>देखो यह धूलि-धूसरित छवि,<br>छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।निराला"<br><br> ::[18]<br>"हनती आँखों की ज्वाला चल,<br>पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,<br>ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;<br>वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,<br>है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;<br>केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"<br><br> ::[19]<br>"फिर असुरों से होती क्षण-क्षण<br>स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;<br>वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब<br>इस जग के मग के मुक्त-प्राण!<br>गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,<br>त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"<br><br> ::*[20]<br>"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,<br>पाषाण-खण्ड ये, करो हार,<br>दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;<br>अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,<br>बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,<br>झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!<br><br> ::[21]<br>तुलसीदास / भाग २ / सूर्यकांत त्रिपाठी "अब स्मर के शर-केशर से झर<br>रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;<br>छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;<br>छिप रहे उसी से वे प्रियतमम<br>छवि के निश्छल देवता परम;<br>जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।निराला"<br><br> ::[22]<br>बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल<br>वन को कर जाती है व्याकुल,<br>हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;<br>वह उस शाखा का वन-विहग<br>छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।<br><br> ::[23]<br>दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,<br>कर रहा पार मन नभोदेश,<br>सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,<br>छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार<br>उड़ती तरंग ऊपर अपार<br>संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।<br><br> ::*[24]<br>उस मानस उर्ध्व देश में भी<br>ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की<br>देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--<br>भारत का सम्यक देशकाल;<br>खिंचता जैसे तम-शेष जाल,<br>खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।<br><br> ::[25]<br>बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल<br>क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;<br>पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;<br>हो रहा भस्म अपना जीवन,<br>चेतना-हीन फिर भी चेतन;<br>अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।<br><br> ::[26]<br> इसने ही जैसे बार-बार<br>दूसरी शक्ति की की पुकार--<br>साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;<br>यह उसी शक्ति से है वलयित<br>चित देश-काल का सम्यक् जित,<br>ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!<br><br> ::[27]<br>विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;<br>यह देश प्रथम ही था हत-बल;<br>वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;<br>तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व<br>क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;<br>द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।<br><br> ::[28]<br>चलते फिरते पर निस्सहाय,<br>वे दीन, क्षीण कंकालकाय;<br>आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;<br>रण के अश्वों से शस्य सकल<br>दलमल जाते ज्यों, दल के दल<br>शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।<br><br> ::[29]<br>वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,<br>पाते प्रहार अब हताश्वास;<br>सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के<br>होना ही उनका धर्म परम,<br>वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,<br>वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!<br><br> ::[30]<br>रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम<br>जो पहला पद, अब मद-विष-सम;<br>द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,<br>जो देशकाल को आवृत कर<br>फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,<br>देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।<br><br>::[31]<br>इस छाया के भीतर है सब,<br>है बँधा हुआ सारा कलरव,<br>भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।<br>इसके भीतर रह देश-काल<br>हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,<br>पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।<br><br> ::[32]<br>दीनों की भी दुर्बल पुकार<br>कर सकती नहीं कदापि पार<br>पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,<br>जब तक कांक्षाओं के प्रहार<br>अपने साधन को बार-बार<br>होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।<br><br> ::[33]<br>सोचा कवि ने, मानस-तरंग,<br>यह भारत-संस्कृति पर सभंग<br>फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;<br>इस अनिल-वाह के पार प्रखर<br>किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,<br>रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।<br><br> ::[34]<br>है वही मुक्ति का सत्य रूप,<br>यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;<br>वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।<br>चाहिए उसे और भी और,<br>फिर साधारण को कहाँ ठौर?<br>जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।<br><br> ::[35]<br>करना होगा यह तिमिर पार-<br>देखना सत्य का मिहिर-द्वार-<br>बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-<br>लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,<br>रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-<br>जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।<br><br> ::[36]<br>कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम<br>चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम<br>वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--<br>करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--<br>तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;<br>उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।<br><br> ::[37]<br>उस क्षण, उस छाया के ऊपर,<br>नभ-तम की-सी तारिका सुघर;<br>आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम<br>प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम<br>शुभ रत्नावली-सरोज-दाम<br>वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।<br><br> ::[38]<br>'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक्<br>दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्<br>प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;<br>फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--<br>इन्दीवर के-से कोश विमल;<br>फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।<br><br> ::[39]<br>उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर,<br>मंजुल जीवन का मन-मधुकर,<br>खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को<br>बैठा ही था सुख से क्षण-भर,<br>मुँद गये पलों के दल मृदुतर,<br>रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।<br><br> ::[40]<br>उसके अदृश्य होते ही रे,<br>उतरा वह मन धीरे-धीरे,<br>केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;<br>यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;<br>जगमग-जगमग सब वेश वन्य;<br>सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।<br><br> ::[41]<br>यह श्री पावन, गृहिणी उदार;<br>गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;<br>कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;<br>सब जीवों पर है एक दृष्टि,<br>तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,<br>प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।<br><br> ::[42]<br>ये जिस कर के रे झंकृत स्वर<br>गूँजते हुए इतने सुखकर,खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;<br>व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,<br>रागिनी की लहर गिरि-वन-सर<br>तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।<br><br> ::[43]<br>यों धीरे-धीरे उतर-उतर<br>आया मन निज पहली स्थिति पर;<br>खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;<br>विश्राम के लिए मित्र-प्रवर<br>बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;<br>वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।<br><br> ::[44]<br>फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल<br>गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल<br>सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।<br>फिर कोटितीर्थ देवांगनादि<br>लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि<br>नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।<br><br> ::[45]<br>आये हनुमद्धारा द्रुततर,<br>झरता झरना वीर पर प्रखर,<br>लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;<br>फिर उतरे गिरि, चल किया पार<br>पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;<br>स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।<br><br> ::[46]<br>कामदागिरि का कर परिक्रमण<br>आये जानकी-कुण्ड सब जन;<br>फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,<br>फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,<br>कुछ दिन सब जन कर वन-विहार<br>लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।<br><br> ::[47]<br>प्रेयसी के अलक नील, व्योम;<br>दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;<br>निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;<br>पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर<br>देखता भूल दिक् उसी ओर;<br>कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।<br><br> ::[48]<br>जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत्<br>रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,<br>वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;<br>अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,<br>बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर<br>वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।<br><br> ::[49]<br>देखता, नवल चल दीप युगल<br>नयनों के, आभा के कोमल;<br>प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,<br>गृह की सीमा के स्वच्छभास--<br>भीतर के, बाहर के प्रकाश,<br>जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।<br><br> ::[50]<br>पर वही द्वन्द्व के कारण,<br>बन्ध की श्रृंखला के धारण,<br>निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;<br>वे पलकों के उस पार, अर्थ<br>हो सका न, वे ऐसे समर्थ;<br>सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।<br><br> ::[51]<br>उस प्रियावरण प्रकाश में बँध,<br>सोचता, तुलसीदास / भाग ३ / सूर्यकांत त्रिपाठी "सहज पड़ते पग सध;<br>शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर<br>यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,<br>दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;<br>बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।निराला"<br><br> ::[52]<br>"बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ?<br>गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?<br>रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;<br>यह क्रम विनाश इससे चलकर<br>आता सत्वर मन निम्न उतर;<br>छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"<br><br> ::[53]<br>"देखो प्रसून को वह उन्मुख !<br>रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,<br>देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।<br>चटका कलि का अवरोध सदल,<br>वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,<br>खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"<br><br> ::*[54]<br>"जिस तरह गन्ध से बँधा फूल,<br>फैलता दूर तक भी समूल;<br>अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में<br>मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,<br>आकृति में निराकार, चुम्बन;<br>युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"<br><br> ::[55]<br>सोचता कौन प्रतिहत चेतन-<br>वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;<br>वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;<br>अपने वश में कर पुरुष देश<br>है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;<br>तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?<br><br> ::[56]<br>वह ऐसी जो अनुकूल युक्ती,<br>जीव के भाव की नहीं मुक्ति;<br>वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;<br>जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,<br>विश्व के प्राण के भी ऊपर;<br>माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।<br><br> ::[57]<br>मृत्तिका एक कर सार ग्रहण<br>खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,<br>त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,<br>पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,<br>ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,<br>बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।<br><br> ::[58]<br>वह रत्नावली नाम-शोभन<br>पति-रति में प्रतन, अतः लोभन<br>अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,<br>प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,<br>प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;<br>मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-<br><br> ::[59]<br>लखती ऊषारुण, मौन, राग,<br>सोते पति से वह रही जाग;<br>प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;<br>प्रिय के जड़ युग कूलों को भर<br>बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;<br>नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।<br><br> ::[60]<br>धीरे-धीर वह हुआ पार<br>तारा-द्युति से बँध अन्धकार;<br>एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;<br>लख रत्नावली खुली सहास;<br>अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;<br>बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-<br><br> ::[61]<br>तुलसीदास / भाग ४ / सूर्यकांत त्रिपाठी "हो गयी रतन, कितनी दुर्बल,<br>चिन्ता में बहन, गयी तू गल<br>माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की<br>हैं विकल देखने को सत्वर<br>सहेलियाँ सब, ताने देकर<br>कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकीनिराला"<br><br> ::[62]<br>"तुझसे पीछे भेजी जाकर<br>आयीं वे कई बार नैहर;<br>पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?<br>हम कई बार आ-आकर घर<br>लौटे पाकर झूठे उत्तर;<br>क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?<br><br> ::[63]<br>"आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर<br>बोलीं, रतन से कहो जाकर,<br>क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?<br>जामाताजी वाली ममता<br>माँ से तो पाती उत्तमता।"<br>बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-<br><br> ::[64]<br>"कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम;<br>छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"<br>बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;<br>फिर किया अनावश्यक प्रलाप,<br>जिसमें जैसी स्नेह की छाप !<br>पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।<br><br> ::[65]<br>"हम बिना तुम्हारे आये घर,<br>गाँव की दृष्टि से गये उतर;<br>क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला<br>केवल कहने को है नैहर?-<br>दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-<br>पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला<br><br> ::[66]<br>उस प्रतिमा का, आया तब खुल<br>मर्यादागर्भित धर्म विपुल,<br>धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,<br>वह घेर-घेर निस्सीम गगन<br>उमड़े भावों के घन पर घन,<br>फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।<br><br> ::[67]<br>बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष,<br>"मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"<br>जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,<br>अंक में उसी के आज लीन-<br>निज मर्यादा पर समासीन;<br>दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।<br><br> ::[68]<br>बोला भाई, तो "चलो अभी,<br>अन्यथा, न होंगे सफल कभी<br>हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।<br>जब लौटें वह, हम करें पार<br>राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"<br>चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।<br><br> ::[69]<br>लेते सौदा जब खड़े हाट,<br>तुलसी के मन आया उचाट;<br>सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;<br>जब देखो, तब द्वार पर खड़े<br>उधार लाये हम, चले बड़े !<br>दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनक ?<br><br> ::[70]<br>सामग्री ले लौटे जब घर,<br>देखा नीलम-सोपानों पर<br>नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;<br>श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,<br>अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;<br>गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।<br><br> ::[71]<br>देखा वह नहीं प्रिया जीवन;<br>नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;<br>आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के<br>अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,<br>निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !<br>नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।<br><br> ::[72]<br>यह नहीं आज गृह, छाया-उर,<br>गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;<br>गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;<br>व्यंजित नयनों का भाव सघन<br>भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;<br>कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।<br><br> ::[73]<br>वह आज हो गयी दूर तान,<br>इसलिए मधुर वह और गान,<br>सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;<br>छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,<br>पग उठे उसी मग को अजान,<br>कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।<br><br> ::[74]<br>मग में पिक-कुहरिल डाल,<br>हैं हरित विटप सब सुमन - माल,<br>हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।<br>पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,<br>हैं चमक रहे सब कनक-गात,<br>बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।<br><br> ::[75]<br>धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु,<br>लख चरण-वारण-चपल धेनु,<br>आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;<br>वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,<br>चपलानन्दित यह सघन गगन;<br>गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।<br><br> ::[76]<br>सुनते सुख की वंशी के सुर,<br>पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;<br>लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;<br>बैठाला देकर मान-पान;<br>कुछ जन बतलाये कान-कान;<br>सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !<br><br> ::[77]<br>जल गये व्यंग्य से सकल अंग,<br>चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,<br>पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;<br>पति की इस मति-गति से मरकर,<br>उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,<br>रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।<br><br> ::[78]<br>बोली मन में होकर अक्षम,<br>रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !<br>लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;<br>खींचता छोर, यह कौन ओर<br>पैठा उनमें जो अधम चौर ?<br>खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !<br><br> ::[79]<br>कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,<br>ज्यों आँधी के उठने का क्षण;<br>प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को<br>ले चली साथ भावज हरती<br>निज प्रियालाप से वश करती,<br>वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।<br><br> ::[80]<br>जेंए फिर चल गृह के सब जन,<br>फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;<br>प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल<br>पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग<br>सुनहला भरे पहला सुहाग,<br>रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।<br><br> ::[81]<br>कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,<br>जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-<br>बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,<br>लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु<br>लहराया जो उर मधुर सिन्धु,<br>विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।<br><br> ::[82]<br>अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,<br>पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित<br>घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;<br>उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,<br>लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च<br>वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।<br><br> ::[83]<br>बिखरी छूटी शफरी-अलकें,<br>निष्पात नयन-नीरज पलकें,<br>भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,<br>निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,<br>जागी योगिनी अरूप-लग्न,<br>वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।<br> ::[84]<br>कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर<br>,स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर<br>स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;<br>अचपल ध्वनि की चमकी चपला,<br>बल की महिमा बोली अबला,<br>जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-<br><br> ::[85]<br>"धिक धाये तुम यों अनाहूत,<br>धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,<br>राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !<br>हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,<br>वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !<br>कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"<br> ::[86]<br>जागा, जागा संस्कार प्रबल,<br>रे गया काम तत्क्षण वह जल,<br>देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;<br>इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,<br>हो गया भस्म वह प्रथम भान,<br>छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।<br><br> ::[87]<br>देखा, शारदा नील-वसना<br>हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,<br>जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,<br>वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर<br>फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,<br>यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।<br><br> ::[88]<br>दृष्टि से भारती से बँधकर<br>कवि उठता हुआ चला ऊपर;<br>केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;<br>धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर<br>धूसर समुद्र शशि-ताराहर,<br>सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।<br><br> ::[89]<br>चमकी तब तक तारा नवीन,<br>द्युति-नील-नील, जिसमें विलीनहो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;<br>आभा भी क्रमशः हुई मन्द,<br>निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;<br>आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।<br><br> ::[90]<br>थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,<br>कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;<br>अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;<br>जिस कलिका में कवि रहा बन्द,<br>वह आज उसी में खुली मन्द,<br>भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।<br><br>::[91]<br>जब आया फिर देहात्मबोध,<br>बाहर चलने का हुआ शोध,<br>रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,<br>खोलती मृदुल दल बन्द सकल<br>गुदगुदा विपुल धारा अविचल<br>बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-<br><br>::[92]<br>बाजीं बहती लहरें कलकल,<br>जागे भावाकुल शब्दोच्छल,<br>गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल<br>सूना उर ऋषियों का ऊना<br>सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,<br>आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।<br><br>::[93]<br>जागो, जागो आया प्रभात,<br>बीती वह, बीती अन्ध रात,<br>झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल<br>बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,<br>तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,<br>आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।<br><br>::[94]<br>होगा फिर से दुर्धर्ष समर<br>जड़ से चेतन का निशिवासर,<br>कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर<br>भारती इधर, हैं उधर सकल<br>जड़ जीवन के संचित कौशल<br>जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।<br><br>::[95]<br>हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न<br>छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न<br>वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,<br>रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन<br>संचित कर करता है वर्षण,<br>लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।<br><br>::[96]<br>देश-काल के शर से बिंधकर<br>यह जागा कवि अशेष-छविधर<br>इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी<br>निश्चेतन, निज तन मिला विकल,<br>छलका शत-शत कल्मष के छल<br>बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।<br><br>::[97]<br>तम के अमार्ज्य रे तार-तार<br>जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार<br>जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो<br>इस कर अपने कारुणिक प्राण<br>कर लो समक्ष देदिप्यमान-<br>दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।<br><br>::[98]<br>क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,<br>कवि ने निज मन भाव में गुना,<br>साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,<br>देखा सामने, मूर्ति छल-छल<br>नयनों में छलक रही, अचपल,<br>उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।<br><br>::[99]<br>जगमग जीवन का अन्त्य भाष-<br>जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,<br>अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का<br>मेरा उससे गृह के भीतर,<br>देखूँगा नहीं कभी फिरकर,<br>लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।<br><br>::[100]<br>चल मन्द चरण आये बाहर,<br>उर में परिचित वह मूर्ति सुघर<br>जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-<br>संकुचित, खोलती श्वेत पटल<br>बदली, कमला तिरती सुख-जलष<br>प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।<br><br>