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क्षण-क्षण तप निखर रहे थे
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सहसा नभ-ध्वनि सुन, 'सिद्धि तुम्हें दी स्रष्टा ने
मुनि! ग्रहण करो यह, व्यर्थ न मन शंका माने
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
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'अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!
तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा
जो असमय कुम्हलाये हैं
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दिन भर तप कर रवि-से लौटोगे, जभी गेह
मैं संध्या-सी देहरी-दीप में भरे स्नेह
अंतर मधु से भर दूँगी'
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यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
चढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर
थर-थर काँपी वह बाला
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यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित
धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत
अपराधी-सा पत्नीत्व खडा नत-नयन मौन
यौवन अल्हडअल्हड़-सा कहता, 'इसमें पाप कौन!'
हँसती सुन्दरता, 'अपना-अपना दृष्टिकोण'
चेतना भीत भी पिये प्रीति की सुरा-शोण
'मैं क्षीणकाय, नि:संबल, निर्बल, संन्यासी
तुम बज्रायुध वज्रायुध , स्वर्गाधिप, नंदन के वासी
इस पर भी बुझी न तृषा तुम्हारी सुरसा-सी
कर गए मलिन चोरी से घर आ, मधुहासी--
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सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीत
पतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे सभीत भीत
पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत
रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत
निज भाग्य -अंक ले फूटे
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