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मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान
 
दूर मुझसे सिन्धु के दो कूल
नाव-सी मंझधार मँझधार में आकर गयी पथ भूल
सो चुके दृग विफल करते तीर का संधान
 
गीत ने गति से किया विद्रोह
राग में अब कुछ नहीं आरोह या अवरोह
तार उतरे, साज बिखरा, हुए मूर्छित गान
 
तिमिर भी जलता मुझे छू हाय
पवन कंपित साँस से बुझाता नखत-समुदाय
कौन ले जाए उड़ा प्रिय तक हृदय का मान
 
मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान
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कहीं मरीचियाँ कढींकढ़ीँ, कहीं दिनांत हो गया
परन्तु हाय! युद्ध में समस्त ध्वांत हो गया
हरा मनुष्य ने दिया सुरेश, चन्द्रसूर्य, सोम को स्वहस्त-न्यस्त-सा किया सुरेश, चन्द्र, सोम धरा समुद्र व्योम को
परन्तु हारता गया स्ववृत्ति के प्रभाव से
स्वदेश seसे, स्वजाति से, स्वबंशु स्वबंधु से, स्वभाव से
विचार देवदूत-से अपंख व्योम में उड़े
विकास प्राण में लिए, विनाश ढूँढता फिरा
किसी अमातृ वत्स को न माँ भले सके दिला सके
निमेष में उठा लिए, शिरस्थ लक्ष-लक्ष के
समस्त सद्-प्रवृत्तियाँ, समस्त सद्-विचार ले
नयी मनुष्यते उठो, विमुक्त पंक-पंक क्षार से
उषा-मुखी निशा-सुखी दुखी कहीं न सृष्टि हो
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