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जो हृदय निमिष में चूर करे, यह भी अच्छी सहृदयता है!
 
तुम कीर्ति -कुमारी के प्रेमी, दे मुझे स्नेह की भीख रहे है देवोचित आचरण यही, अपने को ठगना सीख रहे                                        (गुण यही यहाँ थे सीख रहे!)
 
ओसों से प्यास बुझा तुम तो जा रहे प्रात के तारे-से
उर में जलते जो अंगारे आँसू से कभी बुझे भी हैं!
 
बाड़व बाड़व-सा बढ़ विक्षुब्ध रहा इस जल से तो बल इनका है 
जल जाय न ज्वाला में पड़कर जो हृदय तिरस्कृत तिनका है
 
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