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जब भी विकल हुआ मैं स्वामी!
तूने ही बाँहें हैं थामी
निज दुर्बलता , अन्तर्यामी! तुझको क्या बतलाऊँ !
 
दुःख दुख जितना भी हो, सब सह लूँ
बढ़ा-घटाकर जग से कह लूँ
दुःख दुख में भी सुख से ही रह लूँ
बस इतना वर पाऊँ
 
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