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                 धेनु, ग्राम, शस्य भूमि
गज, अश्व, दास, मणि, मानिक, कुबेर-से
भवन सुवर्ण के उन्हीं कोउन्हींको, देव! दीजिये
दौड़े फिरते जो मृगतृष्णा  में विभव की
पागल से बनकर, समर्थ ब्रह्मणत्व-अर्थ
अर्थ अर्थहीन है अनर्थ मूल सर्वदा.
तीन पग भूमि है अलम् जीवधारियों को
राज्य -लिप्सु को तो तीन लोक भी न पूरे हैं.
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