<Poem>
उठता-गिरता-मुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी पेट की चोटों को
भर आँखों में भर लाताबाहर आ कभी होठ से और अकेले में मन की पीड़ा ही मन टीसों को गाता
अंदर-अंदर कुढ़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी फ़सादों में उलझा
तकली बनकर नाचेनचा टूटे-फूटे शीशों शीशे मेंअपने चेहरे बाँचेअपना चेहरा बांचा
घटनाओं से जुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी कोयले-सा जलता
हल चलने पर गुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
</poem>