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|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
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मेरे भैया
जीवन है तो
जीवन-भर पड़ता है तपना

हाड़-मांस की
देह निराली
रहती हरदम
बजती थाली
क्या है पाया
क्या है खोया
कभी नाप पाया क्या नपना !

मनुवा पंछी
बात न माने
चंचल कितना
सब जग जाने
कभी डूबता
कभी तैरता
खुली आंख से देखे सपना!

एक तंबूरा
सरगम बोले
हरी नाम के
सब रस घोले
आओ बैठो
जानो-समझो
कर लो जी निर्मल मन अपना
</poem>
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