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16:32, 29 अगस्त 2011 तुम लिखते हो, में पढता हूं, मैं कहता हूं, तुम सुनते हो<br />
मुझसे मेरा अन्तस पूछे, प्यारे किस के लिये लिखते हो<br />
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कौन करेगा मूल्यांकन, इस परिश्रम का, जो मात्र अकिंचन<br />
कौन करेगा बैठ के पल भर, लिखी हैं उन बातों पे चिन्तन<br />
किसको है फुर्सत, जो आ कर, बात तुम्हारे मन की पूछे<br />
सुने, समझ कर, समझाने को, फिरता डोले कूचे - कूचे<br />
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थोङा सा भी वक्त मिले तो, आपस मैं होती हैं बातें<br />
कैसे दिन गुजरे हैं तेरे, कैसे काटीं मैं ने रातें<br />
आगे बात बढे तब तक तो, रात गुजर जाती है सहसा<br />
हाल सुबह का रातों जैसा, फिर रातों का वही सुबह सा<br />
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ऐसे में क्या खाक सुनेगा, आम आदमी बात तुम्हारी<br />
सब को छोङो, खुद की सोचो, मानो जो तुम बात हमारी<br />
इतनी सीधी सच्ची बात, बताने पर ही जान सका मैं<br />
अपनी और जमाने भर की, सूरत को पहचान सका मैं<br />
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सत्य! अकिंचन श्रम है मेरा, सत्य! न है कोई अभिलाषा<br />
अभिलाषा तो बस इतनी है, जन जन में जागे जिज्ञासा<br />
पूछे हर कोई खुद से, वो जीता है - क्यों जीता है<br />
गुस्सा क्यों खा जाता है, और अश्कों को क्यों पीता है<br />
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उसको क्यों मालूम नहीं है, मानव की पहचान है क्या<br />
जङ है क्या, चेतन है क्या, ये जिस्म है क्या और जान है क्या<br />
कुदरत से क्यों दूर दूर है, कृत्रिमता का दीवाना<br />
अपने ही घर के अन्दर वो, आज हु आ क्यों बेगाना<br />
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उसको क्यों मालूम नहीं हैं, अपने फर्ज औ अपने हक<br />
कदम बढाने से पहले ही, आखिर क्यों जाता है थक<br />
खोई खोई आखें, उखङी सांसें, बिखरे सपने क्यों<br />
नास्तिक भी आफत आने पर, लगे राम को जपने क्यों<br />
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सार्वभौम है यदि मनुष्य, तो ईश्वर का आराधन क्यों<br />
वैज्ञानिक युग में भी, एक पहेली है ये जीवन क्यों<br />
तन तो बहुत तराशा हमने, लेकिन मन संकीर्ण रहा<br />
मानव का मानस मन्दिर, बस जीर्ण रहा और शीर्ण रहा<br />
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आधी - आधी बात, तुम्हारी समझ नहीं आती हैं ना?<br />
आओ फिर से बन जायें, कुछ पल को हम तोता मैना<br />
खुद से खुद के बारे में, कुछ खुल कर चर्चा आज करें<br />
अद्यतन - पुरातन, मसलों - सिद्धान्तों पर चर्चा आज करें<br />
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आपस में अपना ज्ञान परस्पर बाँट, बनें हम विज्ञानी<br />
मंशा अपनी है यही फकत, हठ कहो इसे, या मनमानी<br />