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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>तुम लिखते हो, में पढता हूं, मैं कहता हूं, तुम सुनते हो<br />मुझसे मेरा अन्तस पूछे, प्यारे किस के लिये लिखते हो<br /><br />कौन करेगा मूल्यांकन, इस परिश्रम का, जो मात्र अकिंचन<br />कौन करेगा बैठ के पल भर, लिखी हैं उन बातों पे चिन्तन<br />किसको है फुर्सत, जो आ कर, बात तुम्हारे मन की पूछे<br />सुने, समझ कर, समझाने को, फिरता डोले कूचे - कूचे<br /><br />थोङा सा भी वक्त मिले तो, आपस मैं होती हैं बातें<br />कैसे दिन गुजरे हैं तेरे, कैसे काटीं मैं ने रातें<br />आगे बात बढे तब तक तो, रात गुजर जाती है सहसा<br />हाल सुबह का रातों जैसा, फिर रातों का वही सुबह सा<br /><br />ऐसे में क्या खाक सुनेगा, आम आदमी बात तुम्हारी<br />सब को छोङो, खुद की सोचो, मानो जो तुम बात हमारी<br />इतनी सीधी सच्ची बात, बताने पर ही जान सका मैं<br />अपनी और जमाने भर की, सूरत को पहचान सका मैं<br /><br />सत्य! अकिंचन श्रम है मेरा, सत्य! न है कोई अभिलाषा<br />अभिलाषा तो बस इतनी है, जन जन में जागे जिज्ञासा<br />पूछे हर कोई खुद से, वो जीता है - क्यों जीता है<br />गुस्सा क्यों खा जाता है, और अश्कों को क्यों पीता है<br /><br />उसको क्यों मालूम नहीं है, मानव की पहचान है क्या<br />जङ है क्या, चेतन है क्या, ये जिस्म है क्या और जान है क्या<br />कुदरत से क्यों दूर दूर है, कृत्रिमता का दीवाना<br />अपने ही घर के अन्दर वो, आज हु आ क्यों बेगाना<br /><br />उसको क्यों मालूम नहीं हैं, अपने फर्ज औ अपने हक<br />कदम बढाने से पहले ही, आखिर क्यों जाता है थक<br />खोई खोई आखें, उखङी सांसें, बिखरे सपने क्यों<br />नास्तिक भी आफत आने पर, लगे राम को जपने क्यों<br /><br />सार्वभौम है यदि मनुष्य, तो ईश्वर का आराधन क्यों<br />वैज्ञानिक युग में भी, एक पहेली है ये जीवन क्यों<br />तन तो बहुत तराशा हमने, लेकिन मन संकीर्ण रहा<br />मानव का मानस मन्दिर, बस जीर्ण रहा और शीर्ण रहा<br /><br />आधी - आधी बात, तुम्हारी समझ नहीं आती हैं ना?<br />आओ फिर से बन जायें, कुछ पल को हम तोता मैना<br />खुद से खुद के बारे में, कुछ खुल कर चर्चा आज करें<br />अद्यतन - पुरातन, मसलों - सिद्धान्तों पर चर्चा आज करें<br /><br />आपस में अपना ज्ञान परस्पर बाँट, बनें हम विज्ञानी<br />मंशा अपनी है यही फकत, हठ कहो इसे, या मनमानी<br /><poem>{{KKCatKavita}}</poem>