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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़' }} [[Category:ग़ज़ल]] <poem> तुम्हारी सोच क…
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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>

तुम्हारी सोच के साँचे में ढल भी सकता था,
वो आदमी ही था इक दिन बदल भी सकता था.

हमारा एक ही रस्ता था एक ही मंजिल,
वो चाहता तो मेरे साथ चल भी सकता था.

ज़मीर की सभी बातें जो मानने लगते,
हमारे हाथ से मौका निकल भी सकता था.

लहू था सर्द वहाँ पर सभी का मुद्दत से,
अगर तुम आंच दिखाते उबल भी सकता था.

चिराग मैंने बुझाये थे अपने हाथों से,
मैं जानता हूँ मेरा हाथ जल भी सकता था.

हर इक सफर में जो चुभता था पाँव में मेरे,
मैं चाहता तो वो काँटा निकल भी सकता था.

उठा के चाँद को थाली में उसकी रख देते,
ज़रा -सी बात थी बच्चा बहल भी सकता था.
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