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भावों में वर भावना सरसता उत्कंठता कंठ में।
देती है भर भूतप्रीतिध्वनि में गंधार्व गंधार्वता॥10॥
 
जागे सात्तिवक भाव भूति टलती हैं तामसी वृत्तिकयाँ।
देखे दिव्य दिवा-विकास छिपती है भीतभूता तमा।
जाती है मिट ज्ञान भानु-कर से अज्ञान की कालिमा।
पाते हैं द्युति लोक लोक दिव की आलोकमाला मिले॥11॥
 
पाते हैं बहुदीप्ति देवगण से दिव्यांगना-वृन्द से।
होते झंकृत हैं सदैव बजते वीणादि झंकार से।
हो आरंजित रत्न से विलसते हैं मोहते लोक को।
ऑंखों में बसते सदा विहँसते आवास हैं स्वर्ग के॥12॥
 
हो-हो नृत्य-कला-निमग्न दिखला अत्यन्त तल्लीनता।
पाँवों के वर नूपुरादि ध्वनि से संसार को मोहती।
ले-ले तान महान मंजु रव से धारा सुधा की बहा।
नाना भाव-भरी परी सहित गा है नाचती किन्नरी॥13॥
 
नाना रोग-वियोग-दु:ख-दल से जो द्वंद्व से है बचा।
सारी ऋध्दि प्रसिध्द सिध्दि निधिक पा जो भूति से है भरा।
जो है मृत्यु-प्रपंच-हीन जिसमें हैं जीवनी ज्योतियाँ।
तो क्या है अपवर्ग-पुण्य बल से जो स्वर्ग ऐसा मिले॥14॥
 
सारी संसृति है विभूति उसकी, है भूत-सत्ता वही।
प्यारा है वह लोक लोकपति का है लोक प्यारा उसे।
जो हो जाय अनन्यता जगत में तो अन्यता है कहाँ।
तो क्या है अपवर्ग-प्राप्ति-गरिमा, तो स्वर्ग ससर्ग क्या॥15॥
 
जो माने न उसे असार, समझे संसार की सारता।
जो देखे तृण से त्रिकदेव तक में दिव्यांग की दिव्यता।
जो ऑंखें अवलोक लें अखिल में आत्मीयता का समा।
जो मानव का हो महान मन तो क्या साहिबी स्वर्ग की॥16॥
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