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वार पर वार कर रहा हूँ मैं / शारिक़ कैफ़ी
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वार पर वार कर रहा हूँ मैं
कुछ जियादा ही दर गया हूँ मैं
रास्ते भर नहीं खुला मुझ पर
ये कि इतना थका हुआ हूँ मैं
वक़्त की गहरी खाई है नीचे
और किनारे ही पे खड़ा हूँ मैं
अजनबीयत की है फ़ज़ा हर सू
आइनों के लिए नया हूँ मैं
उफ़ उदासी ये मेरी आँखों की
किस क़दर झूठ बोलता हूँ मैं
तंज़ तो दूसरे भी करते हैं
सिर्फ उससे ही क्यूँ ख़फ़ा हूँ मैं
</poem>
Shrddha
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