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09:38, 8 सितम्बर 2011 बारिश की हल्की फुहारों के बाद
जब भी मिट्टी महकती है
बहुत याद आते है मंगरू चाचा
पगडण्डी के इस तरफ
मटर के पौधे किकोरी मारे बैठे हुए थे,
उछल कर देखने को आतुर!
और दूसरी तरफ घने बेहये के बीच से
रह-रह कर
झांक रहा था तालाब,
यहाँ से काफी दूर था उनका घर ,
लेकिन न जाने कब उनकी स्मृतियों में
बस गया था तालाब
इसी तालाब में डूबकर मरे थे !
बारिश तो कई दिनों से हो रही थी
हल्की -हल्की
व्यस्त रहते थे
चूती मड़ई की कासों को दुरुस्त करने में
मौसम की तरह चूल्हा भी ठंडा था
और उस पर चूती बूदें
अपने साथ चूल्हे को गलाए
तालाब की ओर लिए जा रही थीं
बस साथ ही गलते और बहते जा रहे थे मंगरू चाचा ,
उन्हें मिट्टी कभी नहीं महकती थी
दरअसल आनंद और जरुरत के बीच
रोटी की गहराई में
डूब गई थे मंगरू चाचा !