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न किसी का घर उजड़ता, न कहीं गुबार होता / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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09:45, 16 सितम्बर 2011
जो यकीन मुझपे होता, मेरा एतिबार होता
मैं मिलन की आरज़ू
को, लहू दे के सींच लेता
ये गुलाब जिंदगी का, जो सदा बहार होता
Purshottam abbi "azer"
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