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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
ये वक्त मेहमान के आने का वक्त है
ख़ाली न बैठ घर को सजाने का वक्त है

इक चोट ले के बैठा रहेगा तू कब तलक
उठ हौसलों से हाथ मिलाने का वक्त है

कुछ दिन से उनकी नज़रे-इनायत इधर भी है
लगता है अपना ठीक ठिकाने का वक्त है

भड़को न यूँ कि बात बिगड़ जाएगी अभी
जैसे बने ये बात बनाने का वक्त है

हर आदमी लगा है तरक्क़ी की दौड़ में
अब किसके पास मिलने मिलाने का वक्त है

घंटों संवर न यूँ भी बहुत देर हो गई
टोकेंगे लोग-ये कोई आने का वक्त है

किसको ‘अकेला’ शेरो-सुख़न की रही तलब
मंचों पे अब लतीफ़े सुनाने का वक्त है

<poem>
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