1,567 bytes added,
17:57, 17 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
साँस की सतह पर चलते-चलते
थक जाती है जब उम्र की चाल
बहुत दूर क्षितिज पर दो आँखें
पलकों पर मुस्कुराहट चिपकाए
अपने लबों के स्याह दयार में
पनाह देती है एक ख़ामोशी को
जन्म होता है एक सिसकी का
जो अकसर कोई दुआ बन कर
भटकती रहती है कायनात में
कभी रूह की रफ़्तार की तरह
वक़्त को मात देने लगती है
कभी जीस्त और अज़ल से परे
किसी मुट्ठी में या हथेली पर
तैयार करती है एक इमारत-सी
जिसमें चाँद का दम घुटता है
सीने में बोई हुई टूटी धड़कन
कच्चे खून की खुशबू पा कर
बड़ी-सी अंगराई लेना चाहती है
पर तभी तुम हाथ बढ़ा देती हो
अंगुलियों में चाँदनी समेटे हुए
एक आख़िरी उम्मीद की तरह
<Poem>