एक मुलायम-सी सुगबुगाहट
मेरी गर्दन के सूने गलियारों में
अब भी रेंग रही है और बदन की सतह पर
अंगुलियाँ चलती रहती हैं रात-दिन
जैसे भटक जाता है कोई जंगल में
मेरा, बीमार-सा बिस्तर पर लेटे रहना यूँ ही
और कमर के किनारे बैठ कर तुम्हारा कहना-
कि अफसोस न करो, जल्द अच्छे हो जाओगे
मेरी माँ की याद ताज़ा कर देती है
माँ, नहीं जानती है तुम्हारे बारे में
बस यही सोचकर मैंने भी नहीं चाहा कि वह जाने
क्या उसे बुरा नहीं लगेगा? कि उसके बेटे को कोई उसकी तरह प्यार करती है समझती है, चाहती है आज फिर अकेलेपन से डर लग रहा है मुझे
आज फिर नींद नहीं आई है सारी रात मुझे
आज फिर सुबह की आँख ने उगला सूरज