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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
इधर से उधर में मरे जा रहे हैं
तेरी रहगुज़र में मरे जा रहे हैं

कि मंज़िल का कोई अता ना पता, बस
सफ़र ही सफ़र में मरे जा रहे हैं

वो मारेगा हमको ज़रूरी नहीं है
मगर डर ही डर में मरे जा रहे हैं

समझ सोच कर छोड़ना गाँव अपना
हम आके शहर में मरे जा रहे हैं

जो कहना है कह दो, कि हम तो तुम्हारी
अगर और मगर में मरे जा रहे हैं

कहाँ जा के सोयें ये भूखे परिन्दे
तलाशे-शजर में मरे जा रहे हैं

सुबह चारागर आएगा फ़िक्र कैसी
कहाँ रात भर में मरे जा रहे हैं

मुहब्बत के चक्कर में पड़के ‘अकेला’
ज़रा सी उमर में मरे जा रहे हैं
<poem>
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