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{{KKRachna
|रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
आप अपनी आग के शोलों में जल जाते थे लोग ।
क्या अँधेरा था कि जिससे रोशनी पाते थे लोग ।

गुफ़्तगू में ढूँढ़ते थे कान जज़्बों का सुराग़[1]
और जो कुछ जी में आता था सो कह जाते थे लोग ।

रूप का मंदिर भी देखा हर दरीचा[2] बन्द था
नीम उर्यां[3] जिस्म दीवारों पे लटकाते थे लोग ।

तूने ऐ पतझड़ के मौसम वह समाँ देखा नहीं
घर वो जब काग़ज़ के गुल-बूटे लिए जाते थे लोग ।

ख़ुदफ़रेबी[4] का धुँदलका भी ग़नीमत था कि जब
दिल को बेबुनियाद उम्मीदों से बहलाते थे लोग ।

और बढ़ जाती थी बाज़ारों की रौनक़ दिन ढले
घर के सन्नाटे से घबराकर निकल जाते थे लोग ।

काश इक पल अपनी मर्ज़ी से भी जीकर देखते
जाने किस-किस के इशारे पर जिए जाते थे लोग ।

शब्दार्थ:

1. ↑ राज़
2. ↑ खिड़की
3. ↑ अर्धनग्न
4. ↑ स्वयं को धोखा देना

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