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03:33, 19 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
|संग्रह=
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए ।
अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों में फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए ।
अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए ।
अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकराँ[1] है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए ।
किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए ।
काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए ।
शब्दार्थ:
1. ↑ अथाह सागर
<poem>