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{{KKRachna
|रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
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}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए ।

अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों में फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए ।

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए ।

अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकराँ[1] है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए ।

किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए ।

काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए ।

शब्दार्थ:

1. ↑ अथाह सागर
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