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{{KKRachna
|रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
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[[Category:ग़ज़ल]]
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संदल के सर्द जंगलों से आ-आ के थक गई हवा ।
जब भी वो बन सुलग उठे महक-महक गई हवा ।

इतने दिनों में ये ज़मीं बदल चुकी थी रास्ते
उतरी जो अम्बरों से फिर भटक-भटक गई हवा ।

देखे तो कल जो ख़्वाब में जाने वह गुल[1] कहाँ खिले
पिन्हा[2] रुतों की खोज में आ-आ के थक गई हवा ।

कूज़ागरों[3] के चाक पर ढले-ढलाए आदमी
मुझको ये किस जहान में ला के पटक गई हवा ।

साहिल की नर्म रेत पर तन्हा खड़ा हुआ था मैं
जान के मुझको अजनबी झिझक-झिझक गई हवा ।

किससे कहूँ कि क्या हुआ, कैसे रुकी, कहाँ रुकी
वैसे तो मेरे साथ-साथ दूर तलक गई हवा ।

जलने भड़कने बुझने का ख़त्म कहाँ है सिलसिला
अब फिर चिराग़ जल उठे अब फिर सनक गई हवा ।

शब्दार्थ:

1. ↑ फूल
2. ↑ छुपी हुई
3. ↑ कुल्हड़ बनाने वाले कुम्हार
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