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12:14, 19 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
चाहते जीना नहीं पर जीने को मजबूर हैं
ज़िन्दगी से दूर हैं और मौत से भी दूर हैं
दूर से उनके दो नैना जाम अमृत के लगे
पास जा देखा तो पाया ज़हर से भरपूर हैं
जन्म पर दावत सही, है मौत पर दावत मगर
कैसे-कैसे वाह री दुनिया तेरे दस्तूर हैं
ठीक हो जाते कभी के हमने चाहा ही नहीं
जान से प्यारे हमें उनके दिए नासूर हैं
भूखे बच्चों की तड़प, चिथड़ों में बीवी का बदन
ज़िन्दगी हमको तेरे सारे सितम मंज़ूर हैं
लड़खड़ाने पर हमारे तंज़ मत करिए जनाब
हौसला हारे नहीं हैं हम थकन से चूर हैं
व्यस्तताओं की वजह से हम न जा पाते कहीं
लोग कहते हैं ‘अकेला’ जी बहुत मग़रूर हैं
<poem>