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02:40, 21 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ओम निश्चल
|संग्रह=शब्दि सक्रिय हैं
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<Poem>
यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बॉंधता है।
सामने फैला नदी का छोर मन को बॉंधता है।
बादलों के व्यूह में
भटकी हुई मद्धिम दुपहरी
कौंध जाती बिजलियों-सी
ऑंख में छवियॉं छरहरी
गुनगुनाती घाटियों का शोर मन को बॉंधता है।
सामने फैला नदी का छोर मन को बॉंधता है।
ये घटाऍं शोख
यह माहौल को रँगती सियाही,
गुम गए हैं अँधेरों में
रोशनी के किरनवाही
लहरियों पर लहरियों का दौर मन को बॉंधता है।
सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है।
दूर तक फैली हुई है
रेत की रंगीन दुनिया,
यहॉं आकर सिमट जाती हैं
अनेकों संस्कृतियॉं
एक सन्नाटा यहॉं हर ओर मन को बॉंधता है।
सामने फैला नदी का छोर मन को बॉंधता है।
<Poem>