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17:49, 22 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मुकुट बिहारी सरोज
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<Poem>
जब तक कसी न कमर,तभी तक कठिनाई है
वरना,काम कौनसा है, जो किया न जाए
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर
जिसने चाहा घर बुलवाये चाँद-सितारे
कहने वाले तो कहते हैं बात यहाँ तक
मौत मर गई थी जीवन के डर के मारे
जब तक खुले न पलक,तभी तक कजराई है
वराना, तम की क्या बिसात,जो पिया न जाए
तुम चाहो सब हो जाये बैठे ही बैठे
सो तो सम्भव नहीं भले कुछ शर्त लगा दो
बिना बहे पाई हो जिसने पार आज तक
एक आदभी भी कोई ऐसा बता दो
जब खुले न पाल,तभी तक गहराई है
वरना,वे मौसम क्या,जिनमें जिया न जाए
यह माना तुम एक अकेले,शूल हजारों
घटती नज़र नहीं आती मंजिल की दूरी
लेकिन पस्त करो मत अपने स्वस्थ हौसले
समय भेजता ही होगा जय की मंजूरी
जब तक बढ़े न पाँव,तभी तक ऊँचाई है
वराना,शिखर कौन सा है,जो छिया न जाए
<Poem/>