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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
करके इश्क़ पड़ा पछताना
खींचे खड़ा कमान ज़माना

पूरा करके ही माने हैं
जब भी जो भी हमने ठाना

किसमें दम था लूटता हमको
ख़ुद हमको भाया लुट जाना

सच क्या है मालूम है हमको
रहने भी दो अपना बहाना

ख़ुद के अंदर झांक के देखो
फिर आकर हमको अज़माना

मजबूरी देखो तो हमारी
हँस भी न पाना, रो भी न पाना

मेरे यार मुबारक़ तुझको
मुझको ‘अकेला’ छोड़ के जाना
<poem>
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