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हिम पिघला है / कविता वाचक्नवी
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23:12, 27 सितम्बर 2011
निष्क्रमण
कायकी हिम-वसनों से,
अविरल, अविकल
मधु-तरंग की
उच्छवासों
उच्छ्वासों
का
सतत निरंतर शोर
ओर न छोर
Kvachaknavee
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