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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
अनुभव हमेशा अनकहा ही रहता है

कहना चाहा कई-कई तरीकों से
बाँधे शब्दों के हज़ारों पुल
अनेकों प्रतीक, अनेकों संकेत
लेकिन नहीं बता सका हूँ अब तक
वह, जो मैं कहना चाहता हूँ
मैं जो महसूस करता हूँ तुम्हारे साथ
तुम्हारी आँखों में खो कर
अंजाने समंदरों की लहरों पर
तैरना, डूबना और उभरना
अपने ही रंग में डूबे हुए फूल
उनकी पंखुड़ियों से मेरा गुज़रना
मुझे किस तरह मदहोश करते हैं
कहाँ कह पाता हूँ चाह कर भी
अनुभव हमेशा अनकहा ही रहता है

मेरी हथेलियों में चुपके से
जब तुम रख देती हो अपना हाथ
मेरे होंठों की फर्श पर
चिपक जाते हैं हौले से
जब तुम्हारे होंठ के मुलायम निशान
उस स्पर्श की पवित्रता
कहाँ बयान कर पाता हूँ कभी भी
अनुभव हमेशा अनकहा ही रहता है

तुम्हारे बदन की सैर पर
जब निकलती हैं मेरी उंगलियाँ
तुम्हारी साँसों का ताज़ापन पाकर
एक नई ऊर्जा से भर उठता हूँ मैं
ठीक उस समय मेरी आँखों से
गुज़र जाती हैं कितनी मंज़िलें
जिसे पाने के लिए अक्सर
मैं दौड़ता रहता हूँ नंगे पाँव
जब चुभने लगते हैं दर्द के शीशे
किस-किस तरह से याद आती हो तुम
कहाँ बता पाता हूँ सोच कर भी
अनुभव हमेशा अनकहा ही रहता है

रात को बिस्तर में जाने से ठीक पहले
कमरे की छत और दीवार से
नज़र जब लौट आती है टकरा कर
खोने लगती है रोशनी की झुरमुट में
एक शक्ल-सी उभरती है धीरे-धीरे
पास आकर पता चलता है
कि वह शक्ल तुम्हारी ही तो है
मैं अपनी बाहें खोल देता हूँ
तुम मेरे पास आती हो सिमट कर
और फिर ओढ़ लेती हो मुझे
जैसे पूरा हो जाता है सर्कल
खो जाता है केंद्र, मिट जाती है परिधि
कहाँ बोल पाता हूँ उस अनुभव को
अनुभव हमेशा अनकहा ही रहता है
<Poem>
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