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/ सुहास बोरकर

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जब नासूर चीखेंगे
<poem>
सल्मडॉग को सलाम करो
 
अपने दबे-कुचले ग़रीब लोगों के
खुले घावों की सड़ांध से।
तमाम चमक-दमक
और लाल कालीन के नर्म रोओं से भी
 
इस बदबू को तुम मिटा नहीं सकते
 
क्योंकि भूख तुम्हारे ट्रिकल डाउन का
इंतज़ार नहीं करती
क्योंकि विश्वास तुम्हारे जीवन के अवसान का
इंतज़ार नहीं करता
क्योंकि सांसें तुम्हारे बिलबिलाते कीड़ों के बढ़ने का
इंतज़ार नहीं करतीं
 
स्वर्ण मूर्तियों को रहने दो वहीं
जैसे गांधी और सत्यजीत के
पथ का अंतिम गीत
- पाथेर शेष पंचाली।
हमने खड़ी कर दी हैं बाधाएँ
क्योंकि तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है
हमारी दुखों का
 
क्योंकि तुमने छिपा दी है
 
हमारे सपनों की चाबी
अपने मुर्दाघर की शव परीक्षागृह में
जहां हमारी आकांक्षाओं को बोतलबंद कर रहे हो
 
स्मृतिलोप के छोटे-छोटे फोर्मेलिन के जार में
 
और हमारे बचे रहने कि जद्दोजहद
हमें विवश करती है भूल जाने को
जहां हमारे बच्चों की हजारों-हज़ार लाशें
तुम्हारे पिरामिड में दफ़न हैं
 
दीमकों के खाए सड़े समय पर
पाँच वर्षीय योजनाएँ निर्भर हैं
कुछ सांख्यिकीविदों के
ग़रीबी रेखा को ऊपर-नीचे सरकाने पर
जिसे ज़रूरत पड़ने पर नकारा भी जा सकता है
' भव्य ' बतला कर
क्योंकि केवल आप ही कर सकते हैं दावतें
जब हम मरें भूख से।
 
 
लेकिन एक दिन बहुत जल्दी ही आएगा
जब हमारे नासूर चीखेंगे
हम उन पिरामिडों को उलट देंगे
जब हम आजाद होंगे
देंगे जब हम अपने को
जो सच में हमारा है?
जय हो! जय हो!
</poem>
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