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11:40, 22 अक्टूबर 2011 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
सभी के हक़ के लिए लड़े जो उसे नयी ज़िन्दगी मिलेगी
वतन परस्तों के दिल पे उसको ख़ुदा क़सम ख्वाज़गी मिलेगी
मशाल हाथों में रहनुमाई की ले के देखो जो चल रहे हैं
लिबास उजले हैं उनके लेकिन ख़याल में गन्दगी मिलेगी
अजल से अब तक यही रहा है, रहेगा शायद ये ता-क़यामत
खिली हुई चाँदनी कहीं तो, कहीं फ़क़त तीरगी मिलेगी
अता किया है जो रब ने तुझको संवार दे तू नसीबे-मुफ़लिस
यतीम बच्चों की परवरिस में, तुझे भी आसूदगी मिलेगी
ख़ुदा को दैरो-हरम में कब से, तलाशते हैं ख़ुदा के बन्दे
ज़मीं के ज़र्रों के लब पे खालिक की चारसू बन्दगी मिलेगी
हमारा बज्मे हसद में घुटता है दम फिजा में है बरहमी सी
चलो, चलें उस चमन की जानिब, जहां हमें ताज़गी मिलेगी
रिहाई की दिल में रख के हसरत कफ़स में मर-मर के जीने वाले
ख़ुदा हुआ मेहरबान जिस दिन ज़रूर आवारगी मिलेगी
जहाने फ़ानी में रस्मे-उल्फ़त का ख्व़ाब लेकर 'रक़ीब' आया
नहीं पता था, नहीं ख़बर थी, यहाँ भी बेगानगी मिलेगी
</poem>