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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
पहले से तो राहत है मगर ना के बराबर
सुधरी हुई हालत है मगर ना के बराबर

मतलब ही न हो मुझसे कोई ऐसा नहीं है
उसको भी मुहब्बत है मगर ना के बराबर

ईमान यहाँ गिनने लगा आखि़री सांसें
लोगों में शराफ़त है मगर ना के बराबर

पहले से कमी दर्द में कितनी है न पूछो
पिघला तो ये परबत है मगर ना के बराबर

जो कुछ भी मिला आधा-अधूरा ही मिला है
उस रब की इनायत है मगर ना के बराबर

औरों की तरह हमको भी ऐ ज़िन्दगी तुझसे
माना कि शिकायत है मगर ना के बराबर

ख़ुद्दार बहुत है वो ‘अकेला’ ये समझ लो
धन की उसे चाहत है मगर ना के बराबर
<poem>
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