नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की
ज़िन्दगी उनकी कथा है आज भी बनवास की
जिन परिन्दों की उड़ाने कुन्द कर डाली गईं
जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निर्वास की
तोड़कर मासूम सपने आने वाली पौध के
नींव रक्खेंगे भला वो कौन से इतिहास की
वह उगी, काटी गई, रौंदी गई, रौंदा गया कुचला गया काटा गया फिर भी उगीउगा देवदारों की नहीं औकात है यह आदमी ऐसे कि जैसे पत्तियाँ हों घास की
वह तो उनके शोर में ही डूब कर घुटता रहा
क़हक़हों ने कब सुनी दारुण कथा संत्रास की
तब यक़ीनन एक बेहतर आज मिल पाता हमें
पोल खुल जाती कभी जो झूठ के इतिहास की
आपके ये आश्वासन पूरे होंगे जब कभी
तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की
अनगिनत मायूसियों, ख़ामोशियों के दौर में
देखना ‘द्विज’, छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की