1,796 bytes added,
13:55, 8 नवम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=काज़िम जरवली
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>पेड़ों की शाखें चुप हैं लुटा हुआ श्रृंगार लिए ,
पापी पछुवा के झोंको ने सारे वस्त्र उतार लिए ।
कब से रस्ता देख रहा है पतझड़ से सन्देश कहो ,
पीला पत्ता हरी मुलायम कोंपल का उपहार लिए ।
कितनी जल की धाराओं ने पाँव छुवा और लौट गयीं ,
मैं सागर तट पर बैठा हूँ तृष्णा का अंगार लिए ।
जल पथ पर तूफ़ान खड़े हैं पत्थर की दीवार बने ,
मांझी नौका मे बैठा है एक टूटी पतवार लिए ।
बाहर का है दृश्य कैसा नन्ही चिड़िया भय खाकर ,
छुपी घोंसले मे बैठी है छोटा सा परिवार लिए ।
नेत्रहीन निंद्रा है अपनी क्या देखू क्या ध्यान करूँ ,
घर से रैन चली जाती है सपनो का संसार लिए ।
हे दिनकर हे अम्बर पंथी उज्यारे के दूत ठहर ,
संध्या स्वागत को आयी है अन्धकार का हार लिए ।। "काज़िम" जरवली
</poem>