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14:13, 8 नवम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=काज़िम जरवली
|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>अपना दिल अब अपने दिल के अन्दर लगता है,
हम को मन्ज़र से अच्छा पस मन्ज़र लगता है ।
बिन ठहरे चलते रहते हैं हाथ, मगर फिर भी,
रात की रोटी तक आने मे दिन भर लगता है ।
ईंटो और गारो से जिनका रिश्ता कोई नहीं,
उनके नाम का दीवारों पर पत्थर लगता है ।
ज़ैसे कुछ होने वाला है थोड़ी देर के बाद,
शहर मे अब रातो को ऐसा अक्सर लगता है ।
उन बूढ़े बच्चो को, लोरी देकर कौन सुलाए,
रात को जिनका घर के बाहर, बिस्तर लगता है ।
बाते गर्म करो तुम लेकिन, ठन्डे लह्जे मे,
उनी कपड़ो मै रेशम का अस्तर लगता है ।
उसको अपने साये मे रक्खे, कैसे कोइ पेड़,
जिसको अपनी परछाई से भी डर लगता है ।
इन चांदी सोने वालो से ”काज़िम” दूर रहो,
इनकी कब्रों पर भी महंगा पत्थर लगता है ।। --”काज़िम” जरवली
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