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14:14, 8 नवम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=काज़िम जरवली
|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>बड़े हुनर से समेटे हैं दर-बदर के नुकूश ,
बजाये पाव के चेहरे पा हैं सफ़र के नुक़ूश ।
ये अह्द-ए-नौ के तक़ाज़े, ये कुछ थकी रस्मे,
नये मकान मे जैसे पुराने घर के नुक़ूश ।
हमारे फ़न कि कही भी नहीं है गुंजाईश,
वरक़ वरक़ है किसी साहिबे हुनर के नुक़ूश ।। --”काज़िम” जरवली
</poem>