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तुम क्या हो ? / विजय कुमार पंत

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धधकती दवात में, सुलगती स्याही हूँ,
इन आँखों की कलम से,
जुबान पर मेरा नाम ना लिखो,

मैं झिझकती हूँ, लूटी हूँ,
और सहती हूँ,
फिर भी कहती हूँ,
मुझे आवाम ना लिखो,

मैं फ़ैल जाऊंगी तुम्हारे सफ़ेद जीवन पृष्ठ पर,
मैं रौशनी हूँ सूरज की,
मुझे शाम ना लिखो,

मैं आंधी के साथ उड़कर
कब जला डालूंगी तेरा छप्पर,
राख़ में छिपी हुई चिंगारी हूँ,
मेरा काम तमाम ना लिखो,

बेहयाओ की तरह नोचते हो रात भर,
सुबह जाते हो मंदिर संत बन नहाकर,
तुम राक्षस कहलाने के काबिल भी नहीं,
यूं अपना नाम श्री.....राम ना लिखो !!
</poem>
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