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13:46, 26 नवम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=
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<poem>
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर<ref>साचाँ</ref> में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं ।
निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है,
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं ।
यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की,
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं ।
जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबाँ<ref>भूत</ref> का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं ।
वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं ।
</poem>
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