::::उस रस-रुप-ध्वनि-लय-
:::छंद और अछंदमयमंगलमना अछंदमय मंगलमना को। पाठ पहला, पाठ अंतिम, विश्व की इस पाठशाला का कि पहचानो स्वयं को, सिंह तू। कवि के यहाँ चल। है वहीं कांतार, अमित-प्रसार, जिसमें तू निशंक-विमुक्त विचरण, मुक्त गर्जन कर सकेगा। तू सिखा सौ जन्म तक भी रोज़ मिमियाना बकरियाँ छोड़नेवाली नहीं हैं। और मेरे यहाँ कल से ही तुझे हरि-वंश प्रतिद्वंद्वी मिलेगा। साथ दे आवाज़, चाहे दे चुनौती, सोचनामुझको नहीं, स्वीकार करता हूँ इसी पल; ::है नहीं सौभाग्य इससे बड़ा कोई, :::मित्र समबल मिले, :::या फिर शत्रु समबल! आज दे प्रश्रय हृदय में स्वप्नगत रूमानियत को मैं नहीं तुझसे कहूँगा, तू नबी है। कटु-कठोर यथार्थ जीवन का बहुत-कुछ देख मैं अब तक चुका हूँ, और तेरा जन्म ही रूमानियत की लाश के ऊपर हुआ है। जो तुझे मैं दे रहा हूँ एक मानव के लिए, :::बस, एक मानव की दुआ है। तुझे मैं अपने भवन ले चल रहा हूँ- वह कुमारी क्या प्रसव की पीर जाने, पुंश्चली जाने सुवन का स्नेह कैसे! मैं प्रसव की वेदना, :::वात्सल्य-दोनों जानता हूँ, ::::क्योंकि कवि हूँ। जो अपने आप में हो अस्त, अपने आप में होता उदय, ::::मैं स्वल्प रवि हूँ- :::एक ही में माँ तथा शिशु!- चल, वहीं पल आत्मजों के बीच मेरे, हो न उन्मन, मैं तुझे संवेदना ही नहीं दूँगा, समा लूँगा तुझे अपने में कि तुझमें समाऊँगा। ::::माँ तुझे दूँगा, :::::स्वयंजो शिशु सनातन। :::::(सार्थक है नाम बच्चन) पन्नगाशन, छोड़ भू का संकुचित-संपुटित आसन। उदर-ज्वाला शांत करने, उरग भक्षण के लिए उतरा धरा पर था कि तू खा-अधा अलसाया हुआ, लेता उबासी ऊँधता है! जानता है? बहुत दिवसों से तुझे आकाश कवि का ढूँढता है। समय ने कमज़ोर क्या, बेकार पाँवों को किया है, किंतु उड़ने के नलए अब भी हिया है। वैनतेय, पसार डैने, नहीं मानी हार मैंने मैं समो दूँगा उन्हीं में आज अपने को, उड़ा ले जा मुझे ऊँचाइयों को-अभ्रभेदी। धरा पर धरा भी तो ठीक दिखलाई न देती। और ज्योति:क्षीण मेरे चक्षुओं को, तार्क्ष्य, दे निज भी अंगारवर्षी। ::अभी काम बहुत बड़ा है, बहुत कुछ जर्जर, गलित, मृत, ::काल-मर्दित, नया बह आया, भयावह, अनृत ::दुर्दर्शन, अशोभन, :::क्षर, अवांछित, ::::अनुपयोगी, ::घृणित, गर्हित :::भस्म करने को पड़ा है।