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पसीने का टीका / रमेश रंजक
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17:37, 21 दिसम्बर 2011
खाकर मार समय की मेरी बोझिल पेशानी
अगर नहीं गा पाई मेरी टूटन का संगीत
कुछ नहीं
मेरा गीत न गा पाया यदि दर्द आदमी का
भाषा न बोल पसया हारी-थकी झुर्रियों की
लाख मिले मुझको बाज़ारू जीत
कुछ नहीं
</poem>
अनिल जनविजय
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