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दिन अकेले के / रमेश रंजक
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19:34, 24 दिसम्बर 2011
दोपहर का बोझ
इतना बढ़ गया है अब
याद ही आती
नहीं
नहीं—
वे बुने स्वेटर-सी गई बातें
काटता हूँ साँस ले-ले के
</poem>
—
अनिल जनविजय
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