बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पता पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं जाता गाता हूँ
दूसरी अनुभूति:
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नई नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
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