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|रचनाकार=राजीव भरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
मैंने चाहा था सच दिखे हर सू,
उसने आईने रख दिए हर सू।

ख्वाहिशों को हवस के सहरा में,
धूप के काफिले मिले हर सू।

काँच के घर हैं, टूट सकते हैं,
यूँ न पत्थर उछालिए हर सू।

फूल भी नफरतों के मौसम में,
खार बन कर बिखर गए हर सू।

लोग जल्दी में किसलिए हैं यहाँ,
हड़बड़ाहट सी क्यों दिखे हर सू?
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