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17:04, 1 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजीव भरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
कहीं चौखट कहीं छप्पर नहीं है,
यहाँ कोई मुकम्मल घर नहीं है.
सुकूँ से पाँव फैलाऊं तो कैसे,
मेरी इतनी बड़ी चादर नहीं है.
अना के दायरे में जीते रहना,
किसी भी कैद से कमतर नहीं है.
मैं मुद्दत बाद तुमसे मिल रहा हूँ,
खुशी से आँख फिर क्यों तर नहीं है?
नज़र डाली तो है उसने इधर भी,
मगर उसकी नज़र मुझ पर नहीं है!
अजब ये संगसारी है! बज़ाहिर,
किसी के हाथ में पत्थर नहीं है.
</poem>